Monday, December 28, 2009

मुझे घर ले चलो

मेरे पास कुछ पिल्लों की ढेर सारी तस्वीरें हैं। ये मैंने कुछ बरस पहले खींची थीं। तब हमारे घर के सामने से एक सूखी नाली गुजरती थी जिसका मुंह कुछ आगे जाकर खुलता था। मैं दो तीन रोज से देख रहा था कि बच्चे उस सूखी नाली में झांककर कुछ देखने की कोशिश करते थे। फिर उनकी बातों से लगा कि वहां कुत्ते के पिल्ले हैं। मुझे पिल्ले वैसे भी पसंद हैं और उन दिनों तो मैने एक नया कैमरा खरीदा था। एक रोज मैंने भी नाली में झांककर देखा। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। भीतर एक कुतिया लेटी हुई थी और कुछ पिल्ले दूध पी रहे थे। नाली के भीतर अंधेरा सा था इसलिए सब कुछ साफ नजर नहीं आ रहा था। थोड़ी देर बाद कुतिया शायद खाना ढूंढने चली गई। मैं तुरंत ऊपर से अपना कैमरा ले आया। पिल्ले कूं कूं करके बाहर निकल ही रहे थे। वे चार थे। तीन चितकबरे और एक पूरी तरह काला। मैंने उनकी ढेर सारी तस्वीरें खींचीं। हालांकि घर में साफ सफाई पर बहुत ध्यान दिया जाता था लेकिन मैंने फोटो खींचने के लिए कूड़े और सूखी नाली में जाने की परवाह नहीं की। बाहर आकर पिल्ले धूप में एक दूसरे पर लदकर सो गए। बीच बीच में वे उठते थे और एक दूसरे को काटते थे। यह सचमुच का काटना नहीं था। पिल्ले इसी तरह शिकार करने का अभ्यास करते हैं। वे शायद पहली बार नाली से बाहर निकले थे। वे बहुत छोटे थे और सर्दी भी बहुत थी इसलिए उन्हें धूप में सोना ज्यादा ठीक लग रहा था। मैंने जी भर कर उनकी तस्वीरें खींचीं। इसके बाद तो कुतिया और पिल्ले हमारे घर और मोहल्ले के लाडले हो गए। हर कोई उनका दीवाना था। जिन लोगों को हमने कभी मुस्कुराते नहीं देखा था, वे भी कुत्तों को देखकर खुश हो जाते थे और उनके बारे में बात करने लगते थे। महिलाएं कपड़े सुखाने या कूड़ा फेंकने के लिए घर से निकलतीं तो पिल्ले उनके पीछे लग जाते। महिलाओं के मन में तो वैसे भी बच्चों के लिए बहुत ममता होती है, चाहे वे किसी के भी बच्चे हों। वे बहुत प्यार से कभी पिल्लों को डांटतीं तो कभी घर से कुछ लाकर दे देतीं। वे आपस में बात करतीं कि उन्होंने आज पिल्लों को क्या दिया। उनकी शरारतों के बारे में वे ऐसे बात करतीं मानो अपने बच्चों की चर्चा कर रही हों। बच्चे अपने घर से कुछ न कुछ लाकर पिल्लों को खिलाते थे। कभी कभी वे अपने मम्मी-पापा को वहां तक खींच लाते थे। वे सर्दियों के दिन थे और शीत लहर चल रही थी। मैंने ऊपर से कुछ अखबार लाकर नाली के भीतर डाल दिए, यह सोचकर कि पिल्लों को सोने में कुछ गरमाहट मिलेगी। मैं घर में यह कहने से डरता था कि पिल्लों को दूध या खाने का कुछ देना चाहिए। फिर मैंने चोरी छिपे बाजार से दूध का पैकेट लाना शुरू किया जिसे मैं रात में पिल्लों को एक कटोरे में डालकर देता था। एक रोज पत्नी ने मुझे ऐसा करते देख लिया। मुझे लगा मुझे डांट पडऩे ही वाली है। पर आश्चर्यजनक रूप से उसने कहा- यह दूध ठंडा है। इसे गर्म करके देना चाहिए। मुझे और क्या चाहिए था। उस रोज के बाद रोज पिल्लों के लिए हमारे घर दूध गर्म होने लगा। पिल्लों को दूध के लिए पुकारना नहीं पड़ता था। वे मैदान में खेलते रहते थे और पुचकारने जैसी थोड़ी सी आवाज निकालते ही तेजी से दौड़कर आ जाते थे। उन्हें गिरते पड़ते दौड़ते देखना बेहद दिलचस्प होता था। वे किसी कार्टून से कम नजर नहीं आते थे। दूध पर वे ऐसे टूट पड़ते मानो कई दिनों से कुछ खाया नहीं। एक ही कटोरे में चार पिल्लों के मुंह समाते नहीं थे। वे एक दूसरे को धकियाते हुए दूध पीते थे। धीरे धीरे मैंने उन्हें थोड़ा थोड़ा करके दूध पिलाना सीख लिया। ेएक बार मैं रात दस बजे के करीब पिल्लों को कुछ खिलाने उतरा। मैंने देखा, कुछ दूर पर रहने वाली अंकिता अपनी मम्मी के साथ वहां मौजूद थी। वह पिल्लों के लिए खाने का कुछ लेकर आई थी। हमने पिल्लों को सब कुछ दिया, सिर्फ उन्हें घर नहीं दे सके। बाहर की दुनिया बहुत निर्मम होती है। पिल्लों के परिवार के वयस्क कुत्तों में एक अजीब सी बीमारी फैल गई। वे एक एक कर मर गए। पिल्लों की मां भी इसी तरह चल बसी। धीरे धीरे पिल्ले भी कम होते गए। किसी को मौसम ने शिकार बना लिया, किसी को दूसरी गली के कुत्तों ने। एक कुतिया अकेली बच गई थी। वह कब तक और किस किस से पिल्लों को बचाती। अब वे पिल्ले सिर्फ तस्वीरों और यादों में रह गए हैं। हर साल, सर्दियों में, गली मोहल्लों में पिल्लों की फौज देखता हूं। उनकी प्यारी हरकतें देखता हूं। बस, उन्हें घर ले जाने का फैसला नहीं कर पाता। कभी किसी पिल्ले से नजर मिल जाती है तो लगता है उसकी जुबान होती तो कहता-मुझे घर ले चलो।

Saturday, December 26, 2009

सब कुछ बिकता है

अखबारों के बिकने को लेकर इन दिनों बहुत बात हो रही है। पूरी दुनिया में खरीदी बिक्री हो रही है। अखबार इससे अलग नहीं है। निष्पक्ष अखबार या तो इतिहास की चीज होता जा रहा है या कल्पना की। अखबारों के चरित्र को लेकर मेरे पास भी कुछ अनुभव हैं। 1991 में मैंने रायपुर में एक अखबार से शुरुआत की थी। कुछ रोज बाद मैंने उसके मालिक और संपादक को एक संवाददाता से यह कहते सुना- हमारी तो पॉलिसी है कि आप भी खाओ, हमें भी खिलाओ। तब से, किसी के पक्ष में समाचार लिखने, किसी के खिलाफ समाचार लिखने, सरकार बदलने पर सुर बदल जाने के उदाहरण लगभग रोज देखने को मिलते आ रहे हैं। कुछ पत्रकारों के बारे में चर्चा होती थी कि वे अमुक अखबार के फाइनेंसर और अमुक नेता के पालतू हैं। ये लोग उस जमाने से पैकेज वाली पत्रकारिता कर रहे हैं। हाल ही में एक बड़े अखबार ने मतदान वाली सुबह अपने अखबार में विज्ञापन के रूप में आठ कालम की एक पट्टी दी-प्रदेश में कांग्रेस की लहर। यह विज्ञापन जैसा नहीं, मुख्य समाचार की हेडिंग जैसा लग रहा था। चुनाव में कांग्रेस हार गई। पता नहीं किसी ने इस विज्ञापन की शिकायत की कि नहीं। पता नहीं अखबार पर कोई कार्रवाई हुई कि नहीं। इसी अखबार का एक और उदाहरण है। शहर में स्थानीय निकाय चुनाव के मतदान से कुछ रोज पहले भाजपा के एक जिला महामंत्री के गायब होने की खबर उड़ी। उसका भाई अपने वार्ड से पार्षद का चुनाव लड़ रहा था। उसने भाई के अपहरण की आशंका जताई। पार्टी के मुख्यालय में इसे लेकर एक पत्रवार्ता हो गई। प्रदेश सरकार के एक जिम्मेदार मंत्री ने नेतृत्व में थाने में प्रदर्शन भी हो गया। और अब पता चला है कि अपहरण जैसी कोई बात नहीं है। वह महामंत्री दिल्ली में अपने रिश्तेदारों के घर पर है। उसके सही सलामत होने के पहले से पुलिस के हवाले से खबरें छप रही हैं महामंत्री सुरक्षित हैं। उन्हें कब पेश किया जाएगा यह पुलिस को नहीं मालूम। लौटने पर क्या कहानी बताई जाएगी पता नहीं। पुलिस को नेताओं ने कठपुतली की तरह इस्तेमाल किया-यह खबर भी छप रही है। भाजपा के लोग कोस रहे हैं कि अपहरण की इस नौटंकी ने पार्टी को बदनाम कर दिया। उनका कहना है- कम से कम हमें तो बता देना था। हमारी बदनामी तो नहीं होती। प्रदेश कांग्रेस के नेता इस मामले की शिकायत चुनाव आयोग से करने जा रहे थे। वे बताना चाहते थे कि अपहरण का नाटक रचकर भाजपा के लोग चुनाव में जनता को भ्रमित करना चाहते थे। यह गलत तरीके से राजनीतिक लाभ उठाना हुआ। कांग्रेस के पार्षद प्रत्याशी ने नेताओं को ऐसा करने से रोक दिया। उसका कहना था कि सही समय पर शिकायत करनी थी। अब तो वोटिंग भी हो गई। मामले को बढ़ाने से क्या फायदा। वैसे भी मैं जीत रहा हूं। अब इस पूरे मामले में अखबार ने यह बात हाईलाइट की है कि भाजपा के जिला महामंत्री के अपहरण को राजनीतिक षडयंत्र के रूप में भुनाने की कांग्रेस की कोशिश की उनके ही पार्षद प्रत्याशी ने हवा निकाल दी। इस पूरे मामले में कांग्रेस नेताओं को जीभ दिखाने जैसी कोई वजह तो नही दिखती। लेकिन देश के एक बड़े अखबार ने ऐसा एंगल ढूंढ निकाला है। एक बार शहर में सफाई अभियान चला था। नालियों के ऊपर बने पाटे तोड़े जा रहे थे। अक्सर लोग अपने घर से सामने से गुजरती नाली पर पाटे या कवर बना लेते हैं और उसका अपनी अपनी तरह से इस्तेमाल करते हैं। ऐसे पाटों से जब नाली पूरी तरह ढक जाती है तो उसकी सफाई प्रभावित होती है। हमारे शहर में नालियां कूड़ेदान की तरह भी इस्तेमाल की जाती हैं। कूड़ा नालियों को जाम कर देता है। पाटों की वजह से नालियां साफ नहीं हो पातीं। तो शहर में पाटे तोड़े जा रहे थे। महापौर के घर के सामने भी नाली पर पाटा बना था। उसे भी तोड़ा गया। खबर यह बननी थी कि खुद महापौर नौ साल से नाली पर पाटा बनाए हुए थे। खबर छपी- महापौर ने कहा- मेरा पाटा तोडऩे से अगर सफाई में मदद मिलती है तो मैं इसके लिए तैयार हूं। जिस आदमी को गैर जिम्मेदार के रूप में पेश करना था, चापलूस रिपोर्टर ने उसे ईसा मसीह बना कर पेश कर दिया। मैंने समाचार संपादक से शिकायत की तो उसने कहा- जाने दो ना यार। मेरे शहर में खाद्य विभाग का एक अफसर है। पिछले कई बरस से वह खुद को कवि के रूप में स्थापित करने में लगा हुआ है। वह विदेश घूम आया है और अब उसका नाम अंतरराष्ट्रीय कवि के रूप में छपता है। वह अक्सर विज्ञप्तियां लेकर खुद आता है। साल भर पहले मैं उसी बड़े अखबार में था। वहां उसके आते ही हमारे अखबार के दो रिपोर्टर खड़े हो जाते थे। दुआ सलाम के बाद उसकी विज्ञप्ति स्वीकार की जाती थी। वह संपादक के साथ चाय पीकर जाता था। फिर किसकी मजाल कि उसकी विज्ञप्ति रोक ले। उसकी एक विज्ञप्ति इस प्रकार थी- अमुक अपार्टमेंट में एक गोष्ठी का आयोजन हुआ। इसका संचालन अमुक जी ने किया। उन्होंने ये पंक्तियां सुनाकर दाद बटोरी...। ये दो पंक्तियां मिर्जा गालिब की थीं। जिन कवियों ने रचनाएं पढ़ीं उनकी एक भी पंक्ति नहीं थी। मैंने अखबार के संपादक से भी शिकायत की कि एक अपात्र लगने वाले व्यक्ति को अनुचित और अनुपातहीन प्रचार मिल रहा है। अखबार में तो एक एक सेंटीमीटर जगह नाप-तौल कर बेची जाती है। क्या यह मान लिया जाए कि उक्त अफसर का प्रचार मुफ्त में हो रहा है? प्रदेश में भारतीय क्रिकेट बोर्ड की इकाई बनाने के लिए दो तीन समूहों में लंबे समय तक खींचतान चली। फिर दो समूहों के लोगों ने मिलकर एक नई बॉडी बना ली और उसे मान्यता मिल गई। लंबे समय से एक समूह के दलाल की तरह काम कर रहे खेल रिपोर्टर ने जो खबर बनाई उसमें इस बात का जिक्र ही नहीं था कि अमुक व्यक्ति को राज्य इकाई का अध्यक्ष बनाया गया है। खबर सचिव से शुरू हुई और उसमें उन लोगों का भी जिक्र था जो मान्यता न मिल पाने के कारण नाराज थे। ये सारे लोग उस समूह से जुड़े थे जिनसे रिपोर्टर जुड़ा था। इनमें से एक ने प्रेस आकर, रिपोर्टर के बगल में बैठकर खबर लिखवाई, जैसा कि वह पहले भी कर चुका था। क्या खेल रिपोर्टर उनके वेतनभोगी की तरह मुफ्त में काम कर रहा था? डेस्क पर काम करने वाले सब एडिटर अक्सर मालदार संवाददाताओं की शिकायत पर संपादक की डांट खाते हैं। संपादक के घर का फ्रिज सुधरवा देने वाले सब एडिटर डेस्क इंचार्ज बना दिए जाते हैं। पैसे देने वाले लोगों से संपादक का लिंक बनवा देने वाले सब एडिटर की गलतियां नजरअंदाज की जाती हैं। पाठकों का एक वर्ग विज्ञापनदाता भी है या दूसरे ढंग से फायदा दिला सकने वाला। रिपोर्टर और संपादक ुउन्हें अपनी तरह से लाभ देते हैं। फोटोग्राफर अपनी तरह से फायदे उठाते चलते हैं। इन सबका तर्क है कि मालिक भी तो कमा रहा है। ऐसे में कौन किससे सुधरने के लिए कहेगा? अलग तरह से सोचने वाले अक्सर उपेक्षित रहते हैं या संस्थान से बाहर हो जाते हैं। और पाठक? वे तो कुर्सी और बाल्टी के लिए अखबार खरीदते हैं।

Friday, December 18, 2009

डायरी का एक पन्ना-१

डायरी का एक पन्ना-1
आज शनिवार है, संभवत: 20 दिसंबर 2009। कल दिन भर बारिश हुई। मौसम एकदम ठंडा हो गया। आज सुबह घना कोहरा छाया हुआ था। घर से डेढ़ सौ मीटर दूर रिंग रोड नजर नहीं आ रहा था। रिंग रोड पर गाडिय़ां हेड लाइट्स ऑन करके चल रही थीं। पहले पहल इधर आए थे तो सुबह कैमरा लेकर निकलता था। उन दिनों ढेरों तस्वीरें खींची। ज्यादातर काम चलाऊ तस्वीरें थीं जिन्हें कोई भी खींच सकता है। कुछ इतनी खराब तस्वीरें थीं जिन्हें दिखाकर फोटोग्राफी के विद्यार्थियों को समझाया जा सकता है कि ऐसी तस्वीरें नहींं खींचनी चाहिए। आज मैंने एक भी तस्वीर नहीं खींची। मौसम को निहारता रहा।
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रिंग रोड फोर लेन हो रहा है। बहुत समय से काम चल रहा है। जब यह बनकर तैयार हो जाएगा तो आने जाने में कुछ सुविधा हो जाएगी लेकिन अभी तो बहुत असुविधा हो रही है। दो जगह ओवर ब्रिज बन रहे हैं, बहुत लंबे समय से। पता नहीं काम करने का सिस्टम क्या है। मीडिया में इस पर खबरें आती हैं लेकिन लेट होने की वजह और उस वजह को दूर करने के उपाय पर इन खबरों में अच्छी तरह चर्चा नहीं होती। रिपोर्टरों के पास इतना समय नहीं होता। उन्हें एक दिन में कई कई रिपोट्र्स बनानी पड़ती हैं।
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घर लौटते वक्त देखा, एक बच्ची को स्कूल छोडऩे जा रही एक महिला कीचड़ में फंस गई। पानी की पाइप बिछाने के लिए इन दिनों पूरी कॉलोनी में खुदाई चल रही है। सड़कें खोदने के बाद उन्हें पाटने और पहले की तरह बना देने का कोई सिस्टम ही नजर नहीं आता। यही गड्ढे बारिश में कीचड़ से भर जाते हैं जिनमें लोग फंसते हैं। सारे शहर में जगह जगह इस तरह के गड्ढे मिल जाएंगे जो सड़कें खोदने से बने हैं। लोग शादी ब्याह पर सड़कें घेर कर शामियाना लगाते हैं और इसके लिए सड़कों पर बड़ी कीलें गाड़ी जाती हैं। इनसे जो गड्ढा होता है उसे भरना कोई अपनी जिम्मेदारी नहीं समझता। स्वागत द्वार लगाने के लिए भी गड्ढे खोदे जाते हैं। इन्हें भी कोई नहीं भरता। नल के कनेक्शन लेने के लिए शायद बार बार सड़कें खोदी जाएंगी।
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आज एक साप्ताहिक अखबार के लिए नगर निगम चुनाव पर कवर स्टोरी लिखनी है। कुछ प्रत्याशियों के इंटरव्यू भी लेने हैं। वे अखबार को विज्ञापन देंगे। मैंने हाल ही में अपनी पत्रिका निकालने के लिए टाइटिल रजिस्ट्रेशन की पहल की है। इस काम में साप्ताहिक अखबार के प्रबंधक ने मेरी मदद की है। बदले में मुझे उनके अखबार के कुछ अंक निकालने पड़ेंगे। देअर आर नो फ्री लंचेज।
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एक राजनीतिक दल के लिए चुनाव का विज्ञापन बनाना है। यहां क्रिएटिविटी के लिए जगह नहीं है। कुछ प्रभावशाली लोग इस होड़ में लगे रहते हैं कि विज्ञापन जारी करने का अधिकार किसे मिले। इसमें उनका क्या फायदा है मुझे नहीं मालूम। यही बादशाह अकबर लोग अपने नौरत्नों से विज्ञापन बनवाते हैं और उनमें सुधार भी करवाते हैं। इन विज्ञापनों का एक जरूरी हिस्सा होता है पार्टी के नेताओं की तस्वीरें। फिर पार्टी के झंडे का रंग और चुनाव चिन्ह। पार्टी स्तर पर जारी होने वाले राजनीतिक विज्ञापनों में इसीलिए अभी तक कोई कल्पनाशीलता नहीं दिखती, कोई कलात्मक प्रभाव नहीं दिखता। प्रत्याशी अपने स्तर पर जो विज्ञापन बनवाते हैं उनमें से कई अधिक प्रभावी होते हैं। जैसे अखबारों के अग्रलेख से बेहतर अक्सर संपादक के नाम पत्र होते हैं। यहां मैं अच्छा लिखने वाले संपादकों की बात नहीं कर रहा। और न उन नियमित पत्र लेखकों की जो नाम छपाने के लिए पत्र लिखते हैं।
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घर में खाने का तेल खत्म हो गया। पैसे भी खत्म हो गए। शाम तक देखता हूं क्या हो पाता है।