Thursday, August 9, 2012

मां
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जब भी याद किया पास आकर खड़ी हो गयी मां
जिसको भी देखा इज्जत से, वही हो गयी मां
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दिन भर से आंखें सूनी थीं, बुझा हुआ था मन
मुझको घर आते  देखा तो अच्छी हो गयी मां

नाजुक हाथों ने जब कसकर पकड़े मेरे हाथ
पा लेने  की जिद करती सी  बच्ची हो गयी मां

आंखों में है वही इबारत लेकिन धुंधली सी
कागज पर स्याही से लिक्खी चिट्ठी हो गयी मां

आंखों में सपने हैं लेकिन थके हुए हैं  पांव
टूटे फूटे पंखों वाली तितली हो गयी मां
भीड़ बहुत है लेकिन आँखें अपनों को ढूंढें 
मेले में खोयी छोटी सी बच्ची हो गयी मां

- निकष परमार


गजल
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इतने बरस रहा यहां जड़ें नहीं जमा सका
मैं शहर की जमीन से रिश्ता नहीं बना सका

मिट्टी अलग थी गांव की, मौसम भी कुछ जुदा ही था
जो आबो हवा खो गई वो मैं यहाँ न पा सका

किसम किसम की खुशबुएं पुकारती रहीं मुझे
मैं बैठकर सुकून से दो रोटियां न खा सका

रूठे हैं वो कि मैंने उन्हें याद क्यूं नहीं किया
वो जिनको एक पल को मैं दिल से नहीं भुला सका


- निकष परमार