Saturday, December 26, 2009

सब कुछ बिकता है

अखबारों के बिकने को लेकर इन दिनों बहुत बात हो रही है। पूरी दुनिया में खरीदी बिक्री हो रही है। अखबार इससे अलग नहीं है। निष्पक्ष अखबार या तो इतिहास की चीज होता जा रहा है या कल्पना की। अखबारों के चरित्र को लेकर मेरे पास भी कुछ अनुभव हैं। 1991 में मैंने रायपुर में एक अखबार से शुरुआत की थी। कुछ रोज बाद मैंने उसके मालिक और संपादक को एक संवाददाता से यह कहते सुना- हमारी तो पॉलिसी है कि आप भी खाओ, हमें भी खिलाओ। तब से, किसी के पक्ष में समाचार लिखने, किसी के खिलाफ समाचार लिखने, सरकार बदलने पर सुर बदल जाने के उदाहरण लगभग रोज देखने को मिलते आ रहे हैं। कुछ पत्रकारों के बारे में चर्चा होती थी कि वे अमुक अखबार के फाइनेंसर और अमुक नेता के पालतू हैं। ये लोग उस जमाने से पैकेज वाली पत्रकारिता कर रहे हैं। हाल ही में एक बड़े अखबार ने मतदान वाली सुबह अपने अखबार में विज्ञापन के रूप में आठ कालम की एक पट्टी दी-प्रदेश में कांग्रेस की लहर। यह विज्ञापन जैसा नहीं, मुख्य समाचार की हेडिंग जैसा लग रहा था। चुनाव में कांग्रेस हार गई। पता नहीं किसी ने इस विज्ञापन की शिकायत की कि नहीं। पता नहीं अखबार पर कोई कार्रवाई हुई कि नहीं। इसी अखबार का एक और उदाहरण है। शहर में स्थानीय निकाय चुनाव के मतदान से कुछ रोज पहले भाजपा के एक जिला महामंत्री के गायब होने की खबर उड़ी। उसका भाई अपने वार्ड से पार्षद का चुनाव लड़ रहा था। उसने भाई के अपहरण की आशंका जताई। पार्टी के मुख्यालय में इसे लेकर एक पत्रवार्ता हो गई। प्रदेश सरकार के एक जिम्मेदार मंत्री ने नेतृत्व में थाने में प्रदर्शन भी हो गया। और अब पता चला है कि अपहरण जैसी कोई बात नहीं है। वह महामंत्री दिल्ली में अपने रिश्तेदारों के घर पर है। उसके सही सलामत होने के पहले से पुलिस के हवाले से खबरें छप रही हैं महामंत्री सुरक्षित हैं। उन्हें कब पेश किया जाएगा यह पुलिस को नहीं मालूम। लौटने पर क्या कहानी बताई जाएगी पता नहीं। पुलिस को नेताओं ने कठपुतली की तरह इस्तेमाल किया-यह खबर भी छप रही है। भाजपा के लोग कोस रहे हैं कि अपहरण की इस नौटंकी ने पार्टी को बदनाम कर दिया। उनका कहना है- कम से कम हमें तो बता देना था। हमारी बदनामी तो नहीं होती। प्रदेश कांग्रेस के नेता इस मामले की शिकायत चुनाव आयोग से करने जा रहे थे। वे बताना चाहते थे कि अपहरण का नाटक रचकर भाजपा के लोग चुनाव में जनता को भ्रमित करना चाहते थे। यह गलत तरीके से राजनीतिक लाभ उठाना हुआ। कांग्रेस के पार्षद प्रत्याशी ने नेताओं को ऐसा करने से रोक दिया। उसका कहना था कि सही समय पर शिकायत करनी थी। अब तो वोटिंग भी हो गई। मामले को बढ़ाने से क्या फायदा। वैसे भी मैं जीत रहा हूं। अब इस पूरे मामले में अखबार ने यह बात हाईलाइट की है कि भाजपा के जिला महामंत्री के अपहरण को राजनीतिक षडयंत्र के रूप में भुनाने की कांग्रेस की कोशिश की उनके ही पार्षद प्रत्याशी ने हवा निकाल दी। इस पूरे मामले में कांग्रेस नेताओं को जीभ दिखाने जैसी कोई वजह तो नही दिखती। लेकिन देश के एक बड़े अखबार ने ऐसा एंगल ढूंढ निकाला है। एक बार शहर में सफाई अभियान चला था। नालियों के ऊपर बने पाटे तोड़े जा रहे थे। अक्सर लोग अपने घर से सामने से गुजरती नाली पर पाटे या कवर बना लेते हैं और उसका अपनी अपनी तरह से इस्तेमाल करते हैं। ऐसे पाटों से जब नाली पूरी तरह ढक जाती है तो उसकी सफाई प्रभावित होती है। हमारे शहर में नालियां कूड़ेदान की तरह भी इस्तेमाल की जाती हैं। कूड़ा नालियों को जाम कर देता है। पाटों की वजह से नालियां साफ नहीं हो पातीं। तो शहर में पाटे तोड़े जा रहे थे। महापौर के घर के सामने भी नाली पर पाटा बना था। उसे भी तोड़ा गया। खबर यह बननी थी कि खुद महापौर नौ साल से नाली पर पाटा बनाए हुए थे। खबर छपी- महापौर ने कहा- मेरा पाटा तोडऩे से अगर सफाई में मदद मिलती है तो मैं इसके लिए तैयार हूं। जिस आदमी को गैर जिम्मेदार के रूप में पेश करना था, चापलूस रिपोर्टर ने उसे ईसा मसीह बना कर पेश कर दिया। मैंने समाचार संपादक से शिकायत की तो उसने कहा- जाने दो ना यार। मेरे शहर में खाद्य विभाग का एक अफसर है। पिछले कई बरस से वह खुद को कवि के रूप में स्थापित करने में लगा हुआ है। वह विदेश घूम आया है और अब उसका नाम अंतरराष्ट्रीय कवि के रूप में छपता है। वह अक्सर विज्ञप्तियां लेकर खुद आता है। साल भर पहले मैं उसी बड़े अखबार में था। वहां उसके आते ही हमारे अखबार के दो रिपोर्टर खड़े हो जाते थे। दुआ सलाम के बाद उसकी विज्ञप्ति स्वीकार की जाती थी। वह संपादक के साथ चाय पीकर जाता था। फिर किसकी मजाल कि उसकी विज्ञप्ति रोक ले। उसकी एक विज्ञप्ति इस प्रकार थी- अमुक अपार्टमेंट में एक गोष्ठी का आयोजन हुआ। इसका संचालन अमुक जी ने किया। उन्होंने ये पंक्तियां सुनाकर दाद बटोरी...। ये दो पंक्तियां मिर्जा गालिब की थीं। जिन कवियों ने रचनाएं पढ़ीं उनकी एक भी पंक्ति नहीं थी। मैंने अखबार के संपादक से भी शिकायत की कि एक अपात्र लगने वाले व्यक्ति को अनुचित और अनुपातहीन प्रचार मिल रहा है। अखबार में तो एक एक सेंटीमीटर जगह नाप-तौल कर बेची जाती है। क्या यह मान लिया जाए कि उक्त अफसर का प्रचार मुफ्त में हो रहा है? प्रदेश में भारतीय क्रिकेट बोर्ड की इकाई बनाने के लिए दो तीन समूहों में लंबे समय तक खींचतान चली। फिर दो समूहों के लोगों ने मिलकर एक नई बॉडी बना ली और उसे मान्यता मिल गई। लंबे समय से एक समूह के दलाल की तरह काम कर रहे खेल रिपोर्टर ने जो खबर बनाई उसमें इस बात का जिक्र ही नहीं था कि अमुक व्यक्ति को राज्य इकाई का अध्यक्ष बनाया गया है। खबर सचिव से शुरू हुई और उसमें उन लोगों का भी जिक्र था जो मान्यता न मिल पाने के कारण नाराज थे। ये सारे लोग उस समूह से जुड़े थे जिनसे रिपोर्टर जुड़ा था। इनमें से एक ने प्रेस आकर, रिपोर्टर के बगल में बैठकर खबर लिखवाई, जैसा कि वह पहले भी कर चुका था। क्या खेल रिपोर्टर उनके वेतनभोगी की तरह मुफ्त में काम कर रहा था? डेस्क पर काम करने वाले सब एडिटर अक्सर मालदार संवाददाताओं की शिकायत पर संपादक की डांट खाते हैं। संपादक के घर का फ्रिज सुधरवा देने वाले सब एडिटर डेस्क इंचार्ज बना दिए जाते हैं। पैसे देने वाले लोगों से संपादक का लिंक बनवा देने वाले सब एडिटर की गलतियां नजरअंदाज की जाती हैं। पाठकों का एक वर्ग विज्ञापनदाता भी है या दूसरे ढंग से फायदा दिला सकने वाला। रिपोर्टर और संपादक ुउन्हें अपनी तरह से लाभ देते हैं। फोटोग्राफर अपनी तरह से फायदे उठाते चलते हैं। इन सबका तर्क है कि मालिक भी तो कमा रहा है। ऐसे में कौन किससे सुधरने के लिए कहेगा? अलग तरह से सोचने वाले अक्सर उपेक्षित रहते हैं या संस्थान से बाहर हो जाते हैं। और पाठक? वे तो कुर्सी और बाल्टी के लिए अखबार खरीदते हैं।

1 Comments:

At February 8, 2010 at 4:02 AM , Blogger koushal swarnber said...

bahut accha likha hai aapne.lekin aaj ka har akhbar isi line me aage bad raha hai.aaj akhbar jagat me samacharon ko lekar ek badi kranti ki jarurat hai.

 

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home