Sunday, February 21, 2010

सम मोर ईडियट्स

मैंने अपने भांजे के कहने पर थ्री ईडियट्स देखी। मुझे लगा कि यह मेरे जीवन की कहानी है। यह मेरे भांजे के जीवन की भी कहानी है। यह देश के ज्यादातर नौजवानों, किशोरों की कहानी है। हमारे यहां बच्चों से कोई नहीं पूछता कि वे क्या बनना चाहते हैं। उनकी पैदाईश से पहले मां बाप तय कर लेते हैं कि बच्चा क्या बनेगा। अपने हिसाब से सब्जेक्ट तय करवाते हैं। बच्चा पढ़ नहीं पाता तो उस पर नाराज होते हैं। बच्चा खेलता है तो नाराज होते हैं। बच्चा संगीत सीखना चाहता है तो नाराज होते हैं। बच्चा कंप्यूटर पर गेम खेलता है तो नाराज होते हैं।

फिल्म देखकर मुझे अपने पुराने दिन याद आ गए। पापाजी का सारा जीवन रोजी रोटी के जुगाड़ में निकला। उनकी रोजी रोटी साहित्य से निकलती थी। उनकी अपनी एक अलग दुनिया थी। उसमें संघर्ष बहुत था। वे हमें उस दुनिया से दूर रखना चाहते थे। वे हमें विज्ञान पढ़ाना चाहते थे। और इस विषय में मुझे लगता है कि वे हमारे लिए बहुत अच्छे करिअर काउंसिलर नहीं हो सकते थे।

यह सवाल उनकी नीयत का नहीं था। ज्यादातर पालकों को पता नहीं होता कि बच्चा वास्तव में क्या पढ़ रहा है और क्या क्या बन सकता है। न पता होते हुए भी पालक होने के नाते हमें सही राह दिखाना उनका फर्ज था। सो उन्होंने राह तय कर दी। यह उनका अपना दिमाग नहीं था। पुराने बस स्टैंड पर एक घड़ीवाले की दुकान पर पापाजी का उठना बैठना था जिसे पापाजी अपने से ज्यादा दुनियादार मानते थे। शायद उसी का दिया सूत्र वाक्य पापाजी के दिमाग में बैठा हुआ था कि साइंस का जमाना है और गणित लेकर पढऩे वाले के लिए ही आगे भविष्य है।

मैं गणित के नाम से हमेशा डरता रहा। गणित की क्लास में मुंह छिपाता था। ज्योमेट्री वगैरह के दम पर मैं ठीक ठाक नंबरों से पास होता रहा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि मैं गणित पढऩा चाहता था। पॉलीटेक्निक के सेकंड इयर में मैं फेल हो गया। यह मेरे विद्यार्थी जीवन का सबसे बड़ा अपमान था। मुझे निराशा नहीं, नाराजगी हुई थी। मैं इस परीक्षा में अपनी मरजी से नहीं बैठा था। यह विषय मुझ पर थोपा गया था। अंतत: मैं गणित नहीं पढ़ पाया। फाइनल इयर की मैंने पढ़ाई जरूर की, परीक्षा देने के लिए घर से भी निकला लेकिन परीक्षा में नहीं बैठा । मुझे याद है कि यह समय मेरे लिए कितना परेशानी भरा था। दो चार दिन में दोस्तों को पता चल गया कि मैं परीक्षा देने के बजाय इधर उधर घूम रहा हूं। मैं एक अच्छे स्टूडेंट के रूप में जाना जाता था। मेरे इस कदम से दोस्तों को घोर आश्चर्य हुआ था। उन्हें यह तो पता था कि मैं गणित से डरता हूं लेकिन यह समस्या इतनी गंभीर है, इसका शायद उन्हें भी अंदाजा नहीं था।

बच्चों को इंजीनियर बनाना उन दिनों मूर्ख या लालची मां बापों के लिए आम लक्ष्य था। ज्यादातर लोग अपने बच्चों को एक अच्छा इंजीनियर नहीं, गलत तरीके से पैसा कमाने वाला बनाना चाहते थे। इंजीनियरिंग और पॉलिटेक्निक की प्रवेश परीक्षा में सफल होना सम्मान का विषय था और इसे बच्चे व पालकों की खुशकिस्मती माना जाता था। ऐसे में आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे परिवार के किसी जवान बेटे का चार साल पढऩे के बाद पढ़ाई छोड़ देना पागलपन ही माना जाता। हमारे परिचितों के बीच, शहर भर में मेरी चर्चा थी। अफवाहें फैलाना और सुनना पसंद करने वाले कुछ लोगों के बीच यह भी चर्चा थी कि मैं पागल हो गया हूं।

पापाजी साहित्यकार थे। घर में साहित्य की ढेरों पत्रिकाएं आती थीं। कई अखबार आते थे। साहित्यकारों का आना जाना लगा रहता था। वही हमारा समाज था। मछली को तैरना नहीं सिखाया जाता, सो मुझमें लिखने का शौक भी था और यह आत्मविश्वास भी कि मैं जो चाहे लिख सकता हूं। मैं पढ़ाई छोड़कर पत्रकारिता में आ गया। आज मुझमें यह आत्मविश्वास है कि मैं लिख पढ़ कर, फोटो खींचकर अपनी रोजी रोटी कमा सकता हूं। मैं अपनी रुचि के दूसरे काम करने के लिए भी तैयार हूं। मैंने कुछ बड़े अखबारों में काम किया और काम की तारीफ भी पाई। अभी मैं किसी बड़े अखबार में नहीं हूं। मैं अपने हिसाब से जीने की राह तलाश रहा हूं। यह मैं इसलिए कर पा रहा हूं क्योंकि मैंने अपनी रुचि का क्षेत्र चुना। अभी मैं डाक्यूमेंट्री फिल्में बनाने से लेकर सॉफ्ट ड्रिंक्स की शॉप या भोजनालय खोलने पर भी विचार कर रहा हूं।

मुझे थ्री ईडियट्स देखने की सलाह देने वाला मेरा भांजा इंजीनियरिंग कालेज में है। उसे अच्छी तरह पता नहीं है कि वह क्या पढ़ रहा है और क्या बन सकता है। वह यह सब पढऩा नहीं चाहता। एक बार उसने मुझसे कहा था कि वह क्रिकेटर बनना चाहता है। हो सकता है उसे पढ़ाई के लायक दूसरे विषयों और करिअर की संभावनाओं के बारे में बताया जाए तो वह कुछ और पढऩा और बनना चाहे। लेकिन शायद उससे किसी ने नहीं पूछा कि वह क्या बनना चाहता है। मैं नहीं जानता कि उसके आसपास ऐसा वातावरण बनाने के लिए क्या किया गया कि उसके भीतर इंजीनियरिंग को लेकर उत्सुकता जागे और वह एक अच्छा इंजीनियर बनने के बारे में सोचे। हां, अगर उसके माता पिता उसे एक अच्छा शिक्षक बनाना चाहते तो खुद शिक्षक होने के नाते शायद यह काम वे बहुत अच्छे से कर सकते थे। मेरे माता पिता मुझे एक अच्छा इंजीनियर बनने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते थे क्योंकि उन्हें एक अच्छे इंजीनियर का मतलब नहीं मालूम था। और इंजीनियर बनने के लिए गणित में जो दिलचस्पी होनी थी, मुझमें नहीं हो सकती थी क्योंकि हमारे घर में कोई कभी किसी चीज का हिसाब नहीं करता था। पापाजी को रिक्शेवाले इसलिए जानते और मानते थे क्योंकि वे कभी मोलभाव नहीं करते थे। मैंने उनकी जेब से खूब पैसे चुराए हैं। हो सकता है कि वे जानकर अनजान बनते रहे हों लेकिन मेरा खयाल है कि उन्हें एक दो अठन्नी चवन्नी के कम ज्यादा होने का बहुत खयाल नहीं रहता था। मैंने भी कभी दुकान से सामान लेते हुए पैसे को लेकर हिसाब नहीं किया। सिर्फ यह देखता था कि जितने मेरे पास जितने पैसे हैं, सामान उससे ज्यादा का न हो जाए। ऐसा बच्चा इंजीनियरिंग के कठिन डिजाइनों की पढ़ाई कैसे करता?

वैसे जीवन में ईडियट बने रहने की भी जरूरत पड़ती है। । नेताओं को, अफसरों को, पुलिसवालों को, पत्नी को, बॉस को ईडियट्स पसंद आते हैं। आप होशियार हो तो भी उनके सामने ईडियट बने रहो। इस समस्या पर चर्चा फिर कभी।

3 Comments:

At May 28, 2010 at 5:24 AM , Blogger रवि रतलामी said...

ईडियट के बहाने आपकी कहानी बिलकुल मेरे एक जिगरी दोस्त की कहानी सी लगी...

 
At May 29, 2010 at 10:34 PM , Blogger nikash said...

aapka bahut naam suna hai. aapki nazre inayat pakar achchha laga.

 
At January 16, 2011 at 7:08 AM , Blogger Rahul Singh said...

थ्री इडियट्स पर एक पोस्‍ट मैंने लिखी थी http://akaltara.blogspot.com/2010/05/blog-post_07.html आप देखें, शायद रुचिकर पाएंगे, मेल के बजाय यहीं लिख रहा हूं, मेरे फोन नं. 9425227484 पर आप अपना मांबाइल नं. एसएमएस कर दें तो आपसे बात करना चाहूंगा.

 

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