Tuesday, November 9, 2010

हमारी डोंगरगढ़ यात्रा

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नौकरी की अनावश्यक व्यस्तता से समय निकाल कर मैं कभी कभी एक दो घंटे के लिए घर जाता था तो मां कहती थी-ऐसे आना है तो मत आया कर।

मेरी शादी के बाद उसकी यह उलाहना बदल गई। वह कहती है- बहू के बगैर मत आया कर।

डोंगरगढ़ जाते हुए बराबर यह लगता रहा कि मां बम्लेश्वरी बहू के बारे में पूछेंगी। डोंगरगढ़ में पूरा समय पत्नी और मां की याद आती रही। अब उन्हें लेकर यहां आना होगा।

वैसे अकेले जाने की मेरी कोई योजना नहीं थी। दोस्तों ने रात में अचानक कहा कि वे डोंगरगढ़ जा रहे हैं। यह नवरात्र मनाने अपनी मां के घर गई थी। मैंने सोचा-एक बार खुद ही हो आएं। पत्नी को लेकर आएंगे तो कुछ आसानी हो जाएगी।

नौकरी इंसान को मशीन का पुर्जा बना देती है। मैंने रोजी रोटी के फेर में डेस्क से बंधे बंधे जीवन गुजार दिया। दोस्तों और घर वालों के साथ मेले ठेले में जाने का शौक कभी पूरा नहीं हुआ। लंबी यात्राओं पर जाना तो एकाध मौके को छोडक़र सपना ही रह गया। मां को लेकर एक बार उड़ीसा जाने का मन है। पुरी तक तो जा सकता हूं लेकिन मां के जन्मस्थान तक जाना पता नहीं कब संभव होगा। पापाजी को लेकर देखे गए सपने तो सपने ही रह गए।

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मेरे लिए डोंगरगढ़ की यात्रा मिले जुले अनुभव वाली रही। मैं रास्ते भर इस तनाव में रहा कि मेरी वजह से मेरे साथी ऊब तो महसूस नहीं कर रहे। एक तनाव यह भी था कि अपने कुछ साथियों की वजह से कहीं मैं ही न ऊब जाऊं। हमारा एक साथी इस तीर्थ यात्रा में सुनने के लिए ऊटपटांग फिल्मी गानों की सीडी खरीद लाया था। गनीमत कि वह चली नहीं। वह अपने साथ एक मोबाइल भी लेकर चल रहा था और किसी लडक़ी के संदेश सहयात्रियों को दिखाकर उन्हें जला रहा था। मेरे कुछ मित्रों ने कहा- यह सब करने की उसकी उमर है। अभी बचपना है।

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डोंगरगढ़ मुझे अच्छी जगह लगी। मैं पहुंच वाले लोगों के साथ गया था इसलिए जगह अच्छी लगनी ही थी। वहां पहुंचते ही उडऩ खटोले में बैठकर पहाड़ी पर पहुंच गए और दर्शन करके नीचे आ गए। कार से आना जाना और रास्ते में अच्छा नाश्ता करने के बाद और क्या रह जाता है। व्यवस्था संबंधी कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ा।

लेकिन इतनी आसानी के कारण ही शायद यह लग नहीं रहा कि मैं डोंगरगढ़ हो आया हूं। राजिम में भी मुझे लगा था कि मैंने कुछ नहीं देखा।

मुझे लगता है डोंगरगढ़ की यात्रा का असली अनुभव पैदल जाने में है। तत्काल तो यह संभव नहीं दिखता क्योंकि पांच छह किलोमीटर चलने के बाद हालत खराब हो जाती है। नंगे पांव सौ किलोमीटर चलना कैसे संभव हो पाएगा।

मैं रास्ते भर बहुत सम्मान के साथ उन लोगों को देखता रहा जो पता नहीं कहां कहां से पैदल चलकर डोंगरगढ़ जा रहे थे। हर साल हजारों लोग इस तरह वहां जाते हैं। उन्हें देखकर पता चलता है कि हम किन जीवट लोगों के बीच रहते हैं। यह अलग बात है कि उनकी इस जीवटता का समाज के जिम्मेदार लोग सम्मान नहीं करते। कुछ लोग इस भीड़ के रास्ते में अपने पोस्टर लगाकर अपना प्रचार जरूर कर लेते हैं।

मैं यह सोचकर दुखी हो जाता हूं कि मैं क्यों नहीं इन जत्थों का हिस्सा बन पाया। इस तरह डोंगरगढ़ जाने वाले बहुत से लोग बीड़ी सिगरेट पीते और अपशब्दों का इस्तेमाल करते भी देखे हैं। लेकिन ऐसे लोग कम होते हैं। ज्यादातर लोग मन में भक्ति भावना लेकर चलते हैं। इन जत्थों में बच्चे भी होते हैं और लड़कियां भी। मैं इन्हें देखकर हमेशा हैरत में पड़ जाता हूं।

मैं पता नहीं जीवन को इतने करीब से कब जी पाऊंगा।

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हम तीन गाडिय़ों में थे। इनमें से हम आठ लोग इनोवा में थे। यह एक सेकंड हैंड गाड़ी थी। इसका सीडी प्लेयर काम नहीं करता था और एसी की ठंडक पिछली सीट तक नहीं पहुंचती थी। लौटते समय एक साथी ने कार के मालिक, हम सबके दोस्त बबलू से कहा- यार एसी बंद कर दो, गरमी लग रही है।

हम इस कार से पहले अपने दफ्तर से रेलवे स्टेशन तक गए। यहां डोंगरगढ़ जाने वाले दूसरे यात्री भी मौजूद थे। कुछ देर गप शप के बाद अंतत: यात्रा शुरू हुई। स्टेशन से तेलघानी पहुंचे ही थे कि दो जोरदार धमाके हुए। मुझे लगा कि पाकिस्तान ने हमला कर दिया। लेकिन मामला कुछ और था। कार एक गड्ढे से होकर गुजरी थी। एक धमाका अगले चक्के के धंसने से हुआ और दूसरा धमाका पिछले चक्के के धंसने से। हालांकि कार गड्ढा पार कर आगे निकल गई। बबलू ने बताया कि उसे यह कार खरीदे दो हफ्ते भी नहीं हुए हैं। अभी उसका हाथ जमा नहीं है। यह बात उसे पहले बतानी थी। पर अब तो हम गाड़ी में बैठ चुके थे।

इसके बाद बहुत देर तक कोई कुछ नहीं बोला। सुदीप ने करीब पंद्रह मिनट बाद अनुरोध किया कि हम सबको बबलू पर भरोसा करना चाहिए और आपस में कुछ बात करनी चाहिए। इसके बाद बातों का सिलसिला शुरू हुआ। रात का वक्त था, सब ड्यूटी करके निकले थे। कुछ ने खाना खाया था कुछ ने नहीं। बात तय हुई कि किसी ढाबे में खाना खाया जाएगा। लेकिन खाना किसी के नसीब में नहीं था। सुदीप जी ढाबे की सूचना देते थे लेकिन बबलू जी गाड़ी वहां रोक नहीं पाते थे। तय होता था कि अगले ढाबे में रुकेंगे। बबलू जी किसी ढाबे पर गाड़ी रोक नहीं पाए।

रास्ते भर हम लोग सडक़ों की चर्चा करते रहे क्योंकि वह खराब थी। इसका एक फायदा यह था कि बबलूजी गाड़ी धीरे धीरे चला रहे थे। बबलूजी ने रास्ते में पूछा कि हम सब में गाड़ी चलाना किसे आता है। मैंने बताया कि मुझे धक्का लगाना आता है। प्रणय ने कहा कि उसे गाड़ी चलाना आता है। बबलू जी चाहें तो उसे स्टीयरिंग थमा सकते हैं। उसे नींद भी नहीं आ रही है। ऐसा कहने के कुछ देर बाद शायद वह सो गया।

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रास्ते में मोटरसाइकिल पर एक युवा जोड़ा जाता दिखाई दिया। हमारे एक साथी ने मुडक़र उसे देखा और एक अन्य साथी को भी देखने कहा। अब मैं दो और लोगों से नाराज हो गया। मुझे ऐसे लोग भी पसंद नहीं।

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डोंगरगढ़ में एक पूर्व परिचित ने हमारी अगवानी की। वे एक पुलिस अफसर हैं और मेले में ड्यूटी पर थे। मेरा तो उनसे कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं था, मेरे साथ गए बहुत से क्राइम रिपोर्टरों से उनका दोस्ताना था। वे रायपुर में रहे थे। उनसे मिलकर सब बहुत खुश हुए। माताजी के दर्शन आराम से हुए। उडऩ खटोले पर पहली बार बैठे। राजनांदगांव होते हुए लौटे। यहां मानव मंदिर का पोहा मशहूर है। हमने उसे मजे लेकर खाया। मैं पत्नी को डोंगरगढ़ लेकर आऊंगा। वह बहुत खुश होगी। लौटते में उसे मानव मंदिर में जलपान कराऊंगा। हम दोनों खाने के शौकीन हैं। वह धार्मिक गतिविधियों में भी मन से शामिल होती है। यह उसके संस्कारों में है।

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मंदिर के रास्ते में मुझे घर घर के आगे पूजा सामग्री और दूसरी वस्तुओं की दुकानें लगी दिखीं। इनसे यह खूबसूरत जगह और खूबसूरत लगने लगी है। दुकानों के लाल पीले रंग पर्वत के मस्तक पर टीके जैसे लगते हैं। इन सबसे भी खास बात यह थी कि जगह जगह नहाने की सुविधा थी। सुबह सुबह लोगों को सबसे ज्यादा जरूरत शौचालय की होती है। यहां के नागरिकों ने तीर्थयात्रियों की इस जरूरत का जिम्मा अपने कंधों पर ले लिया है। जनसहयोग से मेलों की व्यवस्था भी कैसे सुगमता से हो सकती है, इसकी यह मिसाल है। हमारी नगर पालिकाएं जनसहयोग का महत्व जिस दिन समझ जाएं, जन समस्याओं के समाधान का रास्ता मिल जाएगा। मैंने प्रार्थना की- मां बम्लेश्वरी हम सबको ऐसी सद्बुद्धि दें।

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3 Comments:

At November 9, 2010 at 11:31 AM , Blogger ASHOK BAJAJ said...

बेहतरीन प्रस्तुति .

 
At November 9, 2010 at 7:25 PM , Blogger रवि रतलामी said...

मानवमंदिर का पोहा खाकर हम तो जैसे बड़े हुए हैं. सामने राम टाकीज था बहुत पहले. सिनेमा के इंटरवेल में मानवमंदिर में क्या भीड़ होती थी पोहा खाने और चाय पीने को. पच्चीस पैसे में पेट भर पोहा मिलता था. पुराने दिनों की याद दिला दी आपने.

 
At May 23, 2011 at 4:24 AM , Blogger sanjeev tiwari said...

निकष सर के इस यात्रा में भी साथ था । इस ब्लाग को पढऩे के बाद यात्रा की वह सभी सीन एक बार फिर ताजा हो गई। निकष सर को शायद याद होगा यात्रा में सुबह के चार बज रहे थे अचानक गाड़ी लहराने लगी तभी साथियों ने कहा कि शायद गाड़ी पंचर हो गई। बीच सड़क में गाड़ी खड़ी थी सभी ने मिलकर स्टेपनी चेंज किया। इतना ही नही उस समय कमेंट और हंसी मजाक का जो दौर चल रहा था उससे सुबह और सुहानी लग रही थी। खैर यात्रा में ये सब होता ही है लेकिन मां बम्लेश्वरी का दर्शन खासकर मेरे लिए दुर्लभ था क्यो·कि मै पहले ही 700 किमी दूर उत्तर प्रदेश से यहां आया हूं। कई तीर्थ स्थलों का दर्शन किया हूं , लेकिन डोंगरगढ़ अपने आप में अलग है।

 

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