Monday, January 10, 2011

मां

५ जनवरी के आसपास का कोई दिन

मां कल या परसों चली जाएगी। आज उसने कहा- कल मुझे बस में बिठा देना।
मैं चाहता हूं वह बहुत दिनों तक यहां रहे। यह भी तो उसका घर है।
लेकिन वह लौटना चाहती है। वहां, जहां उसके जीवन के चालीस बरस बीते हैं। वहीं उसने हम सबको पाल पोसकर बड़ा किया। वहीं रहकर घर चलाने के लिए नौकरी की है। एक गृहस्थी की जिम्मेदारियां निभाई हैं। उसकी मेजबानी के लिए मेहमान आज तक उसे याद करते हैं। उस घर और मोहल्ले से उसका गहरा रिश्ता है। शहर के लोग भी जाने पहचाने हैं। भला चाहने वाले लोग भी हैं और समय पर मदद करने वाले भी। वह किसी की मामी है, किसी की भाभी। उसे नानी और दादी कहने वाले ढेरों बच्चे हैं। कामवाली है, सब्जीवाली है। और कुछ न हो तो वह वहां की दीवारों से बात कर सकती है। या फिर उस गाय से जो रोज दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती है।
यहां आकर मां अकेली हो जाती है। कहीं आने जाने के लिए उसे मुझसे कहना पड़ता है। मेरे पास समय की कमी है।
सबसे बड़ी कमी पैसों की है। मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है यह मां को पता है। इस बार उसने इसे करीब से देखा है। मेरी हैसियत उसके अनुमान से कहीं अधिक छोटी है।
मां की जरूरतें बहुत ज्यादा नहीं हैं। लेकिन मेरे घर आकर उसे मन को मारना पड़ता है।
मैं मां को दुनिया का हर सुख लाकर देना चाहता हूं। लेकिन समय और पैसे का अभाव मुझे छोटा बना देता है। मां बचती है कि मुझे मेरे छोटेपन का अहसास न हो। लेकिन कई बार इस कड़वी सच्चाई से मुंह छिपाना कठिन हो जाता है। इससे मैं कभी दुखी और कभी नाराज हो जाता हूं। मेरी इस असहिष्णुता से मां डरती है। बल्कि लगातार डरती रहती है।
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मां अब रिटायर हो चुकी है। अब उसकी अपेक्षा आराम करने की है। यह उसका अधिकार भी है।

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10 जनवरी
मां को घर छोड़ आया हूं। वह अकेले यात्रा करने से डरती है।
इस बार वह मेरे घर सबसे ज्यादा दिनों तक रही। इस बार उसने मेरी गृहस्थी की उठापटक को अपनी नजरों के सामने देखा। बहुत कुछ तो वह पहले देख चुकी थी। इस बार बहुत कुछ और देख लिया।
उसे मेरे स्थायित्व की बहुत चिंता है। बल्कि हम सभी भाई बहनों के जीवन की उसे चिंता है। वह बहुत से मामलों में कुछ बोलती नहीं। लेकिन ऐसा नहीं कि वह सोचती भी नहीं। वह लगातार सोचती है। और जहां बोलना जरूरी लगता है, बोलती भी है। उसे लगता है कि बहुत से मौकों पर चुप रहना ही उसके लिए उचित है। सो वह चुप रहती है।
इस बार मैंने मां से खूब सारी बातें कीं। मैं ईश्वर से उसके लिए सुख मांगता हूं।
ईश्वर होता है या नहीं, मैं नहीं जानता।
मैं उम्मीद करता हूं कि ईश्वर होता है और वह मां को सुखी करने में मेरी मदद करेगा।

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1 Comments:

At January 11, 2011 at 8:12 AM , Blogger 36solutions said...

भाई आपके डायरी के अंशों को पढ़कर अपना सा लगा, मॉं सबकी ऐसी ही होती है.
आदरणीय परमार जी की कविताओं की छटपटाहट आपकी भावनाओं में महसूस करता हूं, इसके पहले आपके एक पोस्‍ट जो छत्‍त्‍तीसगढ़ ब्‍लॉग में पब्लिश थी, पर मैंनें लम्‍बी टिप्‍पणी की थी जो शायद अब उस ब्‍लॉग से गायब है।
मॉं को मेरा प्रणाम.

 

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