Friday, July 13, 2012

मां

कल मां के पास बैठा तो उसने कसकर हाथ पकड़ लिए।

उसे अच्छा लग रहा था। वह इन क्षणों को जी लेना चाहती थी। और उन्हें जाने नहीं देना चाहती थी। वह नहीं चाहती थी कि मैं जाऊं। उसे मेरी जरूरत महसूस हो रही थी। वह भीतर से बहुत असहाय लग रही थी। मैं फिर आऊंगा बोलकर निकल आया।

पापाजी को भी यही बोलकर निकला था। वे चाहते थे कि मैं उनके कुछ दोस्तों के आने तक रुकूं और सबकी ग्रुप फोटो खींच दूं। दफ्तर का टाइम हो रहा था। मुझे रायपुर के लिए बस पकडऩी थी। सो रुक नहीं सका। फिर उनके जाने के बाद ही धमतरी जाना हुआ।

कुछ रोज पहले मप्र के अपने एक दोस्त से बात हो रही थी। वे मेरे गंभीर दोस्तों में से हैं। हर बार मां का हाल पूछते हैं। मैंने बताया कि मां बहुत कमजोर हो गयी हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि मां के संस्मरण टेप कर लिए जाएं। कुछ अच्छे सवालों के साथ बात की जाए। मेरा भी यही खयाल है। वे तरह तरह के लोगों से बात करते हैं और उनकी सांस्कृतिक विविधताओं का डाक्युमेंटेशन करते हैं। उन्होंने अपने हिसाब से सुझाव दिया। और सही सुझाव दिया।

मां की स्मरण शक्ति कमजोर होती जा रही है। मां के जाने से  पापाजी के निजी जीवन के बारे में बताने वाला सबसे प्रमुख स्रोत चला जाएगा। जैसे आदरणीय त्रिभुवन पांडेय के चले जाने के बाद पापाजी के कृतित्व को सबसे करीब से जानने वाला नहीं रहेगा। किसी के जाने की कल्पना करना अच्छी बात नहीं है लेकिन जाना तो सबको है। बुजुर्गों के बारे में यह चिंता तो लगी रहती है।

कल बहन ने बताया कि मां को एक बार उसके जन्मस्थान ले जाना चाहती थी। क्योंकि मां बार बार ऐसी इच्छा प्रकट करती रहती थी। यह इच्छा पूरी नहीं हो पायी। बहन ने पापाजी को भी उन जगहों पर ले जाने की सोची थी जिनका जिक्र वह करते रहते थे।

मां का कसकर हाथ पकडऩा व्यथित कर रहा है। यह उल्टी यात्रा का संकेत है। अब मां बच्ची जैसी हो गयी।

अभी भगवान से प्रार्थना करने का समय नहीं आया है। यह समय हम लोगों के कुछ करने का है।



Wednesday, July 11, 2012

अदृश्य दुनिया ---------------



आंखें बंद कर लेने से
अदृश्य हो जाती है
सामने खड़ी दुनिया

आंखें बंद करके आप नहीं देख सकते
वह सब जो सारी दुनिया देख रही है

मसलन
रात को दिन में बदलने के लिए  उगता हुआ सूरज
घर बनाने के लिए तिनके जमा करती हुई चिड़िया 
और ठंडे  मौसम में चाय की पतीली से उठती हुई भाप

आँखें बंद करके आप नहीं देख सकते
सुबह सुबह तैयार होकर स्कूल जाते हुए बच्चे
अपने घर का काम निबटाकर
बाहर के काम पर जाती फुर्तीली कामवालियां
और रोजी रोटी  की तलाश में शहर आने वाले मजदूर

आंखें बंद करके नहीं देखे जा सकते
किसी बेबस की आंखों में भर आए आंसू
किसी परेशान  इंसान के माथे पर उभर आया पसीना
और किसी घायल  के जख्मों से रिसता हुआ खून


आंखें बंद कर लेने से
जब कुछ भी नहीं दिखेगा
अपने रचे स्वप्नलोक के सिवाय

तो फिर संपादक को
मैं क्या दिखूंगा
और क्या तो दिखेगा मेरा काम।