Saturday, May 29, 2010

एक ब्लॉग की एक पोस्ट पर एक टिप्पणी

अनिल पुसदकर जी के ब्लॉग पर एक तस्वीर देखी। लोककलाओं के प्रशिक्षण की एक कार्यशाला का शायद उद्घाटन होने वाला था। खाली स्टेज पर एक कुत्ता आ खड़ा हुआ। फोटोग्राफर ने क्लिक कर लिया। इस पर 29 कमेंट आए। ज्यादातर की मूल भावना थी हा हा हा। मुझे दुख हुआ कि वफादारी के प्रतीक इस जानवर की इतनी दुर्गति हो गयी कि इसे मंच पर देखकर लोगों को हंसी आ रही है। मैंने इस उम्मीद के साथ अपनी प्रतिक्रिया लिखी है कि इसे पर्सनली नहीं लिया जाएगा। यह वस्तुस्थिति पर एक कमेंट है। इसमें कुछ मेरी व्यक्तिगत पीड़ा भी निहित है। सुधी पाठक समझ सकते हैं।
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दुष्यंत कुमार ने ये शेर पता नहीं क्या सोचकर लिखा था। लेकिन कुत्ते को स्टेज पर देखकर मुझे यह शेर बरबस याद आ गया-
हर तरफ ऐतराज होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूं
ये एक वफादार जानवर है। लेकिन शहरी इंसानों की इस दुनिया में वफा की कदर कहां है?
वह गली का कुत्ता है। किसी रईस का कुत्ता होता तो सज संवर कर स्टेज पर आता। उसे देखकर लोग तालियां बजाते। उसकी तस्वीरें अखबारों में छपतीं।
गली के कुत्ते खतरनाक होते हैं। वे अपनी मरजी से भौंकते हैं और किसी के कहने से चुप नहीं होते। उन्हें पत्थर मारकर भगाना पड़ता है। या खुद चुपचाप उनके इलाके से निकल जाना पड़ता है। आपकी दुत्कार सहकर और खुले आसमान के नीचे सोकर जिंदगी गुजारने वालों से आप हुकम बजाने की अपेक्षा नहीं कर सकते। रईस लोग ऐसे कुत्तों को पसंद नहीं करते।
यह धुर नक्सल इलाकों की तस्वीर लगती है। स्टेज पर जिन्हें होना था वे नहीं हैं। जिसकी अपेक्षा नहीं की जाती वह है। उसके पास माइक नहीं है।
शहरों का प्रशासन अक्सर कुत्तों को जहर देने या उनकी नसबंदी करने की योजनाएं बनाता है। दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो गली के कुत्तों के लिए आश्रम चलाते हैं। मुंबई के किसी महापौर ने कभी कहा था कि हर नागरिक गली के एक एक कुत्ते को पाल ले तो इस समस्या का हल हो जाए।
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि गली के कुत्तों को पुलिस के काम के लिए ट्रेन किया जाना चाहिए। ये कुत्ते विषम परिस्थितियों में रहने के आदी होते हैं। इनकी अधिक देखरेख की जरूरत नहीं पड़ती।
लेकिन सरकार आमतौर पर महंगे कुत्ते खरीदती है जिनके खाने पीने और दूसरी सुविधाओं के लिए खूब पैसे खर्च करने का प्रावधान होता है। अब कुत्ता तो बताएगा नहीं कि उसे खाने में अमुक चीज दी जा रही है या नहीं। एक साहब ने कुत्तों को ट्रेनिंग के लिए अमरीका भेजने का सुझाव दिया था।
छत्तीसगढ़ में कुछ समय पहले नागा बटालियन तैनात थी। उसके बारे में मशहूर था कि उसके जवान कुत्ते खाते हैं। वे जिधर से गुजरते हैं वह इलाका कुत्तों से खाली हो जाता है। मुझे एक पुराना लेख याद आता है जिसमें कहा गया था कि जहां फौजें तैनात होती हैं वहां आम आदमी के मानवाधिकार खत्म हो जाते हैं। बंदूक की नोक पर वह सब कुछ होता है जो हो सकता है।
मुझे यह तस्वीर और उस पर लोगों का नजरिया देखकर लग रहा है मानो शहरी रंगकर्मियों के मंच पर कोई लोकनाट्य कर्मी चढ़ गया हो।
या मंत्रालय की रिपोर्टिंग करने वालों के बीच कोई प्रूफ रीडर आ गया हो।

कुछ नक्सलियों से, कुछ सरकार से


नक्सली क्या कर रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। वे किसके लिए लड़ रहे हैं?


नक्सलियों की छवि किसी जमाने में हीरो की थी। रॉबिनहुड जैसी। जो अमीरों को लूटकर गरीबों की मदद करता था। कम्युनिस्ट पार्टियों के लोग पार्टी से अलग होकर नक्सली बने थे। इनमें बहुत पढ़े लिखे, चिंतक टाइप के लोग होते थे, ऐसा पढ़ा सुना है। और आज भी प्रशासन में उनके समर्थक मौजूद हैं, ऐसा पुलिस मानती है।


अगर कोई भ्रष्ट सरकारी अधिकारी, कर्मचारियों को धमकी देकर उसे भ्रष्टाचार करने से रोक देता है, किसी मजदूर की रुकी हुई मजदूरी दिला देता है, किसी पीडि़त महिला को न्याय दिला देता है तो सारा देश उसे हीरो मानेगा। नक्सलियों की शुरुआती छवि ऐसी ही थी।


नक्सलवाद का इतिहास जो मैंने नेट पर उपलब्ध एक रिसर्च पेपर में पढ़ा है उसके मुताबिक एक किसान ने कोर्ट की लड़ाई लड़कर अपनी जमीन पर अपना हक पा लिया था। लेकिन जमींदार उस पर कब्जा छोडऩे के लिए तैयार नहीं थे। इस लड़ाई ने तब खूनी रूप ले लिया। इस तरह का शोषण और भी किसानों का हो रहा था। वे भी इस रास्ते पर चल पड़े।


दुनिया में हर किसी को अन्याय का अनुभव होता है। पल पल पर कोई आपके अधिकार का हनन करता है। पल पल आपको अपनी आजादी को बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। मन में अन्याय के लिए गुस्सा तो होता ही है। ऐसे में कोई न्याय दिलाने वाला मिल जाए तो कोई भी उसका समर्थन करने लगेगा।


यह भी सच है कि भ्रष्टाचार ने जिस तरह शिष्टाचार का रूप ले लिया है, उसे खत्म करना बहुत कठिन हो गया है। भ्रष्ट लोग आसानी से नहीं सुधर सकते। एक आदमी अकेला इस संगठित तंत्र से संघर्ष नहीं कर सकता। इसके लिए संगठित होना पड़ेगा। और चूंकि भ्रष्ट तंत्र में पुलिस व अपराधी भी शामिल हैं इसलिए शायद भ्रष्टाचार के खिलाफ लडऩे वालों को जंगल में छिप कर रहना होगा।
अन्याय का शिकार हर आदमी, जिसे कांग्रेस और भाजपा भी न्याय नहीं दिला पा रही है, नक्सलवाद का एक हद तक समर्थन करता है, अगर नक्सलवाद का मतलब भ्रष्ट लोगों को धमकी देकर कमजोर लोगों को न्याय दिलाना है।


लेकिन बस्तर से जो खबरें लगातार आ रही हैं उनके मुताबिक अपनी गतिविधियां चलाने के लिए पैसा वसूल करते करते नक्सलवाद शायद एक संगठित अपराध बन गया है। उसकी गतिविधियों के चलते आम लोग ही मारे जा रहे हैं। जिस आदिवासी को वे मुखबिर कहकर मार रहे हैं वह गरीब तो पेट के लिए या जान बचाने के लिए किसी का भी मुखबिर बन जाए। बंदूक की नोक पर शहर में क्या नहीं होता? भूमाफिया डरा धमका कर जमीनें खाली करवा लेता है। बड़े बड़े ठेकों में टेंडर भरने वाले लोग हथियारों से लैस होकर चलते हैं। वसूली करने के नाम से बदनाम कुछ राजनीतिक-सामाजिक संगठनों के लोग तलवारें लेकर जुलूस निकालते हैं और सारे शहर को संदेश देते हैं कि देख लो हमारी ताकत। चंदा नहीं दिया तो समझ लो क्या हो सकता है। पुलिस इन्हें मना नहीं करती। इससे संदेश जाता है कि पुलिस का इन्हें संरक्षण मिला हुआ है। जब हम पढ़े लिखे लोगों को शहर के उजाले में डर लग रहा है तो जंगल के अंधेरे में बंदूकों से किसी आदिवासी को डर नहीं लगेगा?


बस्तर के दोस्तों से कभी कभी बात होती है। और बात न भी होती तो यह अनुमान लगाने की बात है कि गांव के गरीब लोगों को बंदूक के बल पर कोई भी अपनी सभा में ले जा सकता है, कोई भी बंदूक दिखाकर अपने लिए खाना बनवा सकता है और किसी को भी अपना आदमी घोषित कर सकता है। इन्हें जन अदालत लगाकर पीटना और मार डालना गलत है। अपना रुतबा जमाने के लिए कोई और रास्ता देखा जाना चाहिए।


नक्सली पता नहीं किस तरह का शासन चाहते हैं। उसमें क्या बंदूकें ही हर बात का फैसला करेंगी? नक्सलियों ने बेगुनाह नागरिकों की जान लेने वाली कुछ घटनाओं के लिए माफी मांगी है, इससे पता चलता है कि उनके रास्ते में इस तरह के खतरे मौजूद हैं। क्या भारत के लोग ऐसी खतरनाक व्यवस्था में जीना चाहेंगे?


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कुछ बातें नेताओं के घिसे पिटे बयानों को लेकर। नक्सली घबरा गए हैं, नक्सली मानवता के दुश्मन हैं, उनके खिलाफ लड़ाई जारी रहेगी, वे कायर हैं-ऐसी बातों से अब किसी को राहत नहीं मिलती। नक्सली क्या हैं यह तो सब देख रहे हैं। लड़ाई किस तरह चल रही है, यह भी सब देख रहे हैं। किसी जमाने में सरकार के सलाहकार रहे केपीएस गिल का कहना है कि पुलिस अफसर नक्सल इलाकों में जाना नहीं चाहते और ट्रांस्फर की जुगत में लगे रहते हैं। ऐसे लोगों के भरोसे कौन सी लड़ाई लड़ी जाएगी।
हाल ही में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और छत्तीसगढ़ के मौजूदा मुख्यमंत्री के बीच बयानों की लड़ाई हुई। इससे कुछ खतरनाक आशंकाएं सामने आईं। अगर इनमें से कोई एक भी सच बोल रहा है तो इसका मतलब है कि नक्सली इलाकों में नक्सलियों से सांठ गांठ करके चुनाव लड़े जाते हैं।


अब सरकारों पर कोई कितना भरोसा करे?


सरकारें नक्सलियों को लोकतंत्र का दुश्मन कहती हैं। लेकिन वे खुद लोकतंत्र की सच्ची प्रतिनिधि नहीं हैं। पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने वाले, घटिया डामर से सड़क बनाने वाले, मोटरसाइकिलों से धान का परिवहन करने वाले लोग लोकतंत्र के प्रतिनिधि नहीं हैं। सत्ता में आते ही करोड़पति बन जाने वाले लोग किस लोकतंत्र की बात कर रहे हैं? बच्चों को कीड़े वाला खाना खिलाने वाले लोग किस लोकतंत्र की बात कर रहे हैं?


अभी अभी एक थानेदार को एक फरियादी महिला से छेड़छाड़ के मामले में सजा हुई है। क्या आप समझते हैं जनता ऐसे प्रशासन का साथ देगी? रुचिका की जान लेने वाले पुलिस अफसर को कितनी सजा हुई? और वह भी अभियोजन की कितनी मशक्कत के बाद और कितने साल बाद? घटनाएं कितनी हो रही हैं और सजा कितनों को मिल रही है?


नक्सली एक मामले में ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोगों से अलग हैं। वे कम से कम यह तो कहते हैं कि वे मौजूदा व्यवस्था को नहीं मानते। कुर्सी वाले लोग तो जनता को धोखा दे रहे हैं। वे अपनी शपथ का पालन नहीं करते दिख रहे हैं।


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नक्सलवाद के संदर्भ में दो पक्ष बताए जाते हैं। एक तो लोकतंत्र के समर्थक और दूसरे विरोधी। लेकिन वास्तव में यहां तीन पक्ष हैं। एक तरफ आम लोग और लोकतंत्र है। दूसरी तरफ नक्सली हैं और भ्रष्टतंत्र है। दोनों को सुधरने की जरूरत है।


नक्सलियों की कोई योजना होगी कि उनकी सरकार ऐसी होगी या वैसी होगी। लेकिन आम जनता के एक बड़े वर्ग को इसके बारे में कुछ पता नहीं। जनता को इसकी जानकारी होनी चाहिए ताकि वह नक्सलियों के बारे में सही राय बना सके। क्या सरकार डरती है कि जनता नक्सलियों की विचारधारा को ज्यादा पसंद करने लगेगी?


मेरे जैसे बहुत से लोगों की राय है कि सरकार ईमानदारी से जनता का काम करने लगे तो नक्सलवाद अपने आप खतम हो जाएगा। लेकिन पैसे और शराब बांटकर सरकार बनाने वाले लोगों से कैसे ऐसी अपेक्षा की जाए? बहुत से लोग शायद यह भी संदेह करते हैं कि नक्सलियों से लडऩे के नाम पर जो भारी भरकम धनराशि मिल रही है, उसकी बंदरबांट हो रही है और यह सिलसिला चलता रहे इसके लिए जरूरी है कि नक्सलवाद भी चलता रहे।


यह एक गंभीर आरोप है। बंदूकों के साए में इसके सबूत जुटाना मुश्किल है। लेकिन गैर नक्सली इलाकों में पैसों का जैसा उपयोग-दुरुपयोग हो रहा है उसे देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि नक्सली इलाकों में क्या हो रहा होगा।


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मैं रोज अपने घर में टीवी के चैनल बदलते हुए देखता हूं कि ज्यादातर फिल्मों में हीरो विलेन को गोली मारकर अन्याय का बदला लेते हैं। रोज ऐसी फिल्में टीवी पर आ रही हैं। टाकीजों में दिखाई जा रही हैं। इस बारे में सरकार क्या सोचती है?


Friday, May 28, 2010

कुछ करना पड़ेगा

मैं इन दिनों शाम के एक अखबार में काम कर रहा हूं। राज्य के एक नामी प्रकाशक का अखबार है। किसी जमाने में ठीक ठाक निकलता था। फिर बीच में उसने अपनी चमक खो दी। अखबार के पूर्व संपादक अब उसकी चमक लौटाने का प्रयास कर रहे हैं। मैं इसमें सहभागी हूं।
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अखबार में मैं कोई खास योगदान नहीं कर रहा हूं। अखबार का मतलब होता है ताजी खबरें। संपादक महोदय मौलिक समाचारों से अखबार निकालना चाहते हैं। इस लिहाज से तो मेरा योगदान लगभग जीरो है।
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मैं दूसरों की कॉपियों का संपादन भर कर रहा हूं। यह अलग बात है कि मेरे इस संपादन की कीमत ऊंची है। ऐसा संपादन हर कोई नहीं कर सकता। जो लोग कर सकते हैं वे इतने कम रेट पर उपलब्ध नहीं हैं।
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मेरे काम में अभी जर्नलिजम कम, साहित्य ज्यादा है। वह भी धीरे धीरे खत्म हो रहा है क्योंकि मैं पढ़ता नहीं हूं। लोगों से बहुत ज्यादा मिलता जुलता भी तो नहीं हंू। खासतौर पर ज्ञान और भाषा के धनी लोगों से।
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अब मेरे पास समय भी कम बचा है। और दुनिया की अपेक्षाओं का दबाव बढ़ता जा रहा है। कुछ दिनों बाद मैं बाजार से गायब हो जाऊंगा। लोग तर्क लगाएंगे कि अब तक कुछ नहीं कर पाया तो आगे क्या करेगा। मुझ पर कौन दांव लगाएगा।
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मैं अपने भविष्य को लेकर हताश हूं। लेकिन अपने आसपास बहुत से नाकाबिल लोगों को काम करते देखता हूं तो लगता है मुझे क्यों हताश होना चाहिए। पर यह भी है कि कंपीटीशन करने के लिए अगर यही लोग रह गए हैं तो इसका मतलब है मैं नीचे की ओर जा रहा हंू।
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दूसरे कमजोर लोगों को देखकर खुश हो लेना मेरे लिए नुकसानदेह है। ऐसे कमजोर लोग काम करते करते मजबूत हो जाते हैं और उन्हें कमजोर समझने वाला मैं अपनी जगह या उससे भी पीछे चला जाता हूं। ऐसा बहुत बार हुआ है। मैंने बहुत से लोगों को सिर्फ मेहनत और लगन के बल पर आगे बढ़ते देखा है।
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मुझे कुछ अरसा प्रेस में काम करने के साथ अपने नाम से मैगजीन का टाइटिल रजिस्टर करवा लेना चाहिए। और कुछ अनुभव इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का ले लेना चाहिए। ग्रैजुएशन करना चाहिए और फिर मीडिया की डिग्रियां लेनी चाहिए। और कुछ नहीं तो मीडिया का टीचर बनकर प्राइवेट ट्यूशन जैसा काम कर सकता हूं।
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अपना बिजनेस रहेगा तो अपनी प्लानिंग से काम करूंगा। अपने लिए काम करूंगा तो ज्यादा काम करूंगा। मेरे दिमाग में बहुत सी योजनाएं हैं, उन पर काम करूंगा। फोटोग्राफी, उपन्यास, फिल्में, वृत्तचित्र और एक अच्छी मैगजीन-ऐसी कुछ योजनाएं हैं।
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नई पीढ़ी के काम आना होगा। वरना बुढ़ापे में कौन पूछेगा।
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28 मई, 2010